वो एक राज़! जो मुद्दत से राज़ था ही नहीं
उस एक राज़ से पर्दा उठा दिया गया है
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धूप के जाते ही मर जाऊँगा मैं
कुछ देर तो दुनिया मिरे पहलू में खड़ी थी
मिरा सवाल है ऐ क़ातिलान-ए-शब तुम से
ये किस मक़ाम पे लाया गया ख़ुदाया मुझे
मैं छुप रहा हूँ कि जाने किस दम
मुसाफ़िरों से कहो अपनी प्यास बाँध रखें
हम क़ाफ़िले से बिछड़े हुए हैं मगर 'नबील'
गुज़र रहा हूँ किसी ख़्वाब के इलाक़े से
न जाने कैसी महरूमी पस-ए-रफ़्तार चलती है
परिंदे झील पर इक रब्त-ए-रूहानी में आए हैं
सुब्ह और शाम के सब रंग हटाए हुए हैं
तमाम शहर को तारीकियों से शिकवा है