मुसाफ़िरों से कहो अपनी प्यास बाँध रखें
सफ़र की रूह में सहरा कोई उतर चुका है
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ख़ाक चेहरे पे मल रहा हूँ मैं
चाँद तारे इक दिया और रात का कोमल बदन
सारे सपने बाँध रखे हैं गठरी में
वो एक राज़! जो मुद्दत से राज़ था ही नहीं
फिर नए साल की सरहद पे खड़े हैं हम लोग
ज़मीं की आँख से मंज़र कोई उतारते हैं
परिंदे झील पर इक रब्त-ए-रूहानी में आए हैं
धूप के जाते ही मर जाऊँगा मैं
बिखेरता है क़यास मुझ को
उस की सोचें और उस की गुफ़्तुगू मेरी तरह
ये किस मक़ाम पे लाया गया ख़ुदाया मुझे