सारे सपने बाँध रखे हैं गठरी में
ये गठरी भी औरों में बट जाएगी
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ज़मीं की आँख से मंज़र कोई उतारते हैं
आँखों के ग़म-कदों में उजाले हुए तो हैं
मैं अपने गिर्द लकीरें बिछाए बैठा हूँ
बातों में बहुत गहराई है, लहजे में बड़ी सच्चाई है
मोजज़े का दर खुला और इक असा रौशन हुआ
मैं किसी आँख से छलका हुआ आँसू हूँ 'नबील'
हम क़ाफ़िले से बिछड़े हुए हैं मगर 'नबील'
इस बार हवाओं ने जो बेदाद-गरी की
ये किस मक़ाम पे लाया गया ख़ुदाया मुझे
अगरचे ज़ेहन के कश्कोल से छलक रहे थे
न जाने कैसी महरूमी पस-ए-रफ़्तार चलती है
सुब्ह और शाम के सब रंग हटाए हुए हैं