तमाम शहर को तारीकियों से शिकवा है
मगर चराग़ की बैअत से ख़ौफ़ आता है
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'नबील' इस इश्क़ में तुम जीत भी जाओ तो क्या होगा
आँखों के ग़म-कदों में उजाले हुए तो हैं
न जाने कैसी महरूमी पस-ए-रफ़्तार चलती है
मोजज़े का दर खुला और इक असा रौशन हुआ
मैं छुप रहा हूँ कि जाने किस दम
उस की सोचें और उस की गुफ़्तुगू मेरी तरह
जिस तरफ़ चाहूँ पहुँच जाऊँ मसाफ़त कैसी
मुसाफ़िरों से कहो अपनी प्यास बाँध रखें
ये किस वहशत-ज़दा लम्हे में दाख़िल हो गए हैं
चाँद तारे इक दिया और रात का कोमल बदन
आएँगे नज़र सुब्ह के आसार में हम लोग