मैं छुप रहा हूँ कि जाने किस दम
उतार डाले लिबास मुझ को
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ख़याल-ओ-ख़्वाब का सारा धुआँ उतर चुका है
जिस तरफ़ चाहूँ पहुँच जाऊँ मसाफ़त कैसी
मैं अपने गिर्द लकीरें बिछाए बैठा हूँ
फिर नए साल की सरहद पे खड़े हैं हम लोग
मैं नींद के ऐवान में हैरान था कल शब
ये किस वहशत-ज़दा लम्हे में दाख़िल हो गए हैं
चुपके चुपके वो पढ़ रहा है मुझे
अगरचे ज़ेहन के कश्कोल से छलक रहे थे
सारे सपने बाँध रखे हैं गठरी में
वो दुख नसीब हुए ख़ुद-कफ़ील होने में
ज़मीं की आँख से मंज़र कोई उतारते हैं
दश्त-ओ-सहरा में समुंदर में सफ़र है मेरा