न जाने कैसी महरूमी पस-ए-रफ़्तार चलती है
हमेशा मेरे आगे आगे इक दीवार चलती है
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ख़याल-ओ-ख़्वाब का सारा धुआँ उतर चुका है
बिखेरता है क़यास मुझ को
'नबील' इस इश्क़ में तुम जीत भी जाओ तो क्या होगा
परिंदे झील पर इक रब्त-ए-रूहानी में आए हैं
ख़ाक चेहरे पे मल रहा हूँ मैं
ये किस मक़ाम पे लाया गया ख़ुदाया मुझे
उस की सोचें और उस की गुफ़्तुगू मेरी तरह
वो दुख नसीब हुए ख़ुद-कफ़ील होने में
फिर नए साल की सरहद पे खड़े हैं हम लोग
चुपके चुपके वो पढ़ रहा है मुझे
मैं दस्तरस से तुम्हारी निकल भी सकता हूँ