'नबील' ऐसा करो तुम भी भूल जाओ उसे
वो शख़्स अपनी हर इक बात से मुकर चुका है
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हयात-ओ-काएनात पर किताब लिख रहे थे हम
सारे सपने बाँध रखे हैं गठरी में
'नबील' इस इश्क़ में तुम जीत भी जाओ तो क्या होगा
उस की सोचें और उस की गुफ़्तुगू मेरी तरह
किसी से ज़ेहन जो मिलता तो गुफ़्तुगू करते
वो एक राज़! जो मुद्दत से राज़ था ही नहीं
न जाने कैसी महरूमी पस-ए-रफ़्तार चलती है
सुनो मुसाफ़िर! सराए-जाँ को तुम्हारी यादें जला चुकी हैं
ये किस वहशत-ज़दा लम्हे में दाख़िल हो गए हैं
ज़मीं की आँख से मंज़र कोई उतारते हैं
हम क़ाफ़िले से बिछड़े हुए हैं मगर 'नबील'
बिखेरता है क़यास मुझ को