मैं बरहमन ओ शैख़ की तकरार से समझा
पाया नहीं उस यार को झुँझलाए हुए हैं
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हो चुका वाज़ का असर वाइज़
कहीं ख़ालिक़ हुआ कहीं मख़्लूक़
है मुसलमाँ को हमेशा आब-ए-ज़मज़म की तलाश
दूर हो दर्द-ए-दिल ये और दर्द-ए-जिगर किसी तरह
ग़मगीं नहीं हूँ दहर में तो शाद भी नहीं
यार को हम ने बरमला देखा
कुफ़्र एक रंग-ए-क़ुदरत-ए-बे-इंतिहा में है
कहता है यार जुर्म की पाते हो तुम सज़ा
ज़ाहिरी वाज़ से है क्या हासिल
हम न बुत-ख़ाने में ने मस्जिद-ए-वीराँ में रहे
दुनिया में इबादत को तिरी आए हुए हैं