ज़ाहिरी वाज़ से है क्या हासिल
अपने बातिन को साफ़ कर वाइज़
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नहीं दुनिया में आज़ादी किसी को
जो है याँ अासाइश-ए-रंज-ओ-मेहन में मस्त है
यार को हम ने बरमला देखा
मैं बरहमन ओ शैख़ की तकरार से समझा
ढूँढ कर दिल में निकाला तुझ को यार
ज़ाहिदा काबे को जाता है तो कर याद-ए-ख़ुदा
बहस क्यूँ है काफ़िर-ओ-दीं-दार की
रखा सर पर जो आया यार का ख़त
कहीं ख़ालिक़ हुआ कहीं मख़्लूक़
कहता है यार जुर्म की पाते हो तुम सज़ा
जा-ब-जा हम को रही जल्वा-ए-जानाँ की तलाश