जा-ब-जा हम को रही जल्वा-ए-जानाँ की तलाश
दैर-ओ-काबा में फिरे सोहबत-ए-रहबाँ में रहे
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यार को हम ने बरमला देखा
इश्क़ में दिल से हम हुए महव तुम्हारे ऐ बुतो
नहीं दुनिया में आज़ादी किसी को
किया है संदलीं-रंगों ने दर बंद
कब तसव्वुर यार-ए-गुल-रुख़्सार का फ़े'अल-ए-अबस
कहीं ख़ालिक़ हुआ कहीं मख़्लूक़
नहीं बुत-ख़ाना ओ काबा पे मौक़ूफ़
कहता है यार जुर्म की पाते हो तुम सज़ा
ज़ाहिरी वाज़ से है क्या हासिल
मैं बरहमन ओ शैख़ की तकरार से समझा
पता मिलता नहीं उस बे-निशाँ का
दुनिया में इबादत को तिरी आए हुए हैं