यार को हम ने बरमला देखा
आश्कारा कहीं छुपा देखा
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हम न बुत-ख़ाने में ने मस्जिद-ए-वीराँ में रहे
रिश्ता-ए-उल्फ़त रग-ए-जाँ में बुतों का पड़ गया
कहीं ख़ालिक़ हुआ कहीं मख़्लूक़
जो है याँ अासाइश-ए-रंज-ओ-मेहन में मस्त है
दूर हो दर्द-ए-दिल ये और दर्द-ए-जिगर किसी तरह
इश्क़ में दिल से हम हुए महव तुम्हारे ऐ बुतो
ढूँढ कर दिल में निकाला तुझ को यार
ग़मगीं नहीं हूँ दहर में तो शाद भी नहीं
बहस क्यूँ है काफ़िर-ओ-दीं-दार की
ज़ाहिदा काबे को जाता है तो कर याद-ए-ख़ुदा
है मुसलमाँ को हमेशा आब-ए-ज़मज़म की तलाश