है मुसलमाँ को हमेशा आब-ए-ज़मज़म की तलाश
और हर इक बरहमन गंग-ओ-जमन में मस्त है
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किया है संदलीं-रंगों ने दर बंद
ग़मगीं नहीं हूँ दहर में तो शाद भी नहीं
ज़ाहिदा काबे को जाता है तो कर याद-ए-ख़ुदा
कब तसव्वुर यार-ए-गुल-रुख़्सार का फ़े'अल-ए-अबस
यार को हम ने बरमला देखा
हम न बुत-ख़ाने में ने मस्जिद-ए-वीराँ में रहे
जो है याँ अासाइश-ए-रंज-ओ-मेहन में मस्त है
रिश्ता-ए-उल्फ़त रग-ए-जाँ में बुतों का पड़ गया
नहीं बुत-ख़ाना ओ काबा पे मौक़ूफ़
नहीं दुनिया में आज़ादी किसी को
कहता है यार जुर्म की पाते हो तुम सज़ा