नहीं बुत-ख़ाना ओ काबा पे मौक़ूफ़
हुआ हर एक पत्थर में शरर बंद
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दुनिया में इबादत को तिरी आए हुए हैं
हो चुका वाज़ का असर वाइज़
पता मिलता नहीं उस बे-निशाँ का
रखा सर पर जो आया यार का ख़त
जा-ब-जा हम को रही जल्वा-ए-जानाँ की तलाश
है मुसलमाँ को हमेशा आब-ए-ज़मज़म की तलाश
यार को हम ने बरमला देखा
नहीं दुनिया में आज़ादी किसी को
मैं बरहमन ओ शैख़ की तकरार से समझा
कहीं ख़ालिक़ हुआ कहीं मख़्लूक़
ज़ाहिदा काबे को जाता है तो कर याद-ए-ख़ुदा