नहीं दुनिया में आज़ादी किसी को
है दिन में शम्स और शब को क़मर बंद
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ज़ाहिरी वाज़ से है क्या हासिल
हम न बुत-ख़ाने में ने मस्जिद-ए-वीराँ में रहे
ज़ाहिदा काबे को जाता है तो कर याद-ए-ख़ुदा
मैं बरहमन ओ शैख़ की तकरार से समझा
कब तसव्वुर यार-ए-गुल-रुख़्सार का फ़े'अल-ए-अबस
पता मिलता नहीं उस बे-निशाँ का
किया है संदलीं-रंगों ने दर बंद
कुफ़्र एक रंग-ए-क़ुदरत-ए-बे-इंतिहा में है
रखा सर पर जो आया यार का ख़त
जा-ब-जा हम को रही जल्वा-ए-जानाँ की तलाश
जो है याँ अासाइश-ए-रंज-ओ-मेहन में मस्त है