दीदा-ए-तर

तुम मिरे कोई नहीं

और ये नन्ही सी जाँ

कौन है? कोई नहीं

मैं भी तुम दोनों को शायद

अजनबी लगता हूँ शायद कुछ नहीं

ऐन-मुमकिन है कि रोज़-ए-हश्र के इम्कान से ही क़ब्ल हम

अपने अपने रास्तों पर

रोज़ ओ शब चलते हुए

रेग-ए-ना-मालूम के तूफ़ान में

ऐसे बिछ्ड़ें

फिर कभी न मिल सकें

ये जो लम्हा बख़्त में लिक्खा है हम सब के ख़ुदा ने

क़ुर्ब का, रंग-ए-तमाज़त का, लहू के रंग का

काश उस लम्हे में हम

बंद कर लें अपनी आँखों में हसीं चेहरे शगूफ़े

क़हक़हे, रौशन सितारे

लहलहाते जिस्म

मौज-ए-बर्क़ शोलों का तमव्वुज

मौत के, तख़्लीक़ के असरार सब

ख़ाना-ए-मौजूद उन सब के लिए

अब हमारे दीदा-ए-तर के सिवा कुछ भी नहीं

रस्म-ए-रुख़्सत भी कभी होगी मगर

लम्हा-ए-बेनाम की तहवील में

घर, ये सच है, मुख़्तसर है

इस फ़ना-अंजाम जलते मुख़्तसर घर के सिवा कुछ भी नहीं

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