इश्क़ में बू है किबरियाई की
आशिक़ी जिस ने की ख़ुदाई की
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है दिल में घर को शहर से सहरा में ले चलें
इस लब से रस न चूसे क़दह और क़दह से हम
सीखा जो क़लम से न-ए-ख़ाली का बजाना
काबा तो संग-ओ-ख़िश्त से ऐ शैख़ मिल बना
थे हम इस्तादा तिरे दर पे वले बैठ गए
क़ज़ा ने हाल-ए-गुल जब सफ़्हा-ए-तक़दीर पर लिक्खा
कल के दिन जो गिर्द मय-ख़ाने के फिरते थे ख़राब
नर्गिस-ए-मस्त तिरी जाए जो तुल बरसर-ए-गुल
देखा तो एक शो'ले से ऐ शैख़-ओ-बरहमन
ग़ैरत-ए-गुल है तू और चाक-गरेबाँ हम हैं