'बासिर' तुम्हें यहाँ का अभी तजरबा नहीं
बीमार हो? पड़े रहो, मर भी गए तो क्या
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अपनी बातों के ज़माने तो हवा-बुर्द हुए
बढ़ गई तुझ से मिल के तन्हाई
रुक गया हाथ तिरा क्यूँ 'बासिर'
कुछ तो हस्सास हम ज़ियादा हैं
हर-चंद मेरे हाल से वो बे-ख़बर नहीं
कैसे याद रही तुझ को
होते हैं जो सब के वो किसी के नहीं होते
हज़ार कहता रहा मैं कि यार एक मिनट
दिल लगा लेते हैं अहल-ए-दिल वतन कोई भी हो
अब दिल को समझाए कौन
ख़त में क्या क्या लिखूँ याद आती है हर बात पे बात