रुक गया हाथ तिरा क्यूँ 'बासिर'
कोई काँटा तो न था फूलों में
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चमकी थी एक बर्क़ सी फूलों के आस-पास
हर-चंद मेरे हाल से वो बे-ख़बर नहीं
तुझ को देख रहा हूँ मैं
अपनी बातों के ज़माने तो हवा-बुर्द हुए
कुछ तो हस्सास हम ज़ियादा हैं
जब भी मिले हम उन से उन्हों ने यही कहा
'बासिर' तुम्हें यहाँ का अभी तजरबा नहीं
तेरे दिए हुए दुख
दिल में हर-चंद आरज़ू थी बहुत
क़रार पाते हैं आख़िर हम अपनी अपनी जगह
तू जब सामने होता है
कितना काम करेंगे