कुछ तो हस्सास हम ज़ियादा हैं
कुछ वो बरहम ज़ियादा होता है
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'बासिर' तुम्हें यहाँ का अभी तजरबा नहीं
था जो कभी इक शौक़-ए-फ़ुज़ूल
होते हैं जो सब के वो किसी के नहीं होते
कितना काम करेंगे
अपनी बातों के ज़माने तो हवा-बुर्द हुए
ख़त में क्या क्या लिखूँ याद आती है हर बात पे बात
ख़त्म हुईं सारी बातें
गिला भी तुझ से बहुत है मगर मोहब्बत भी
क़रार पाते हैं आख़िर हम अपनी अपनी जगह
अब दिल को समझाए कौन
हम जैसे तेग़-ए-ज़ुल्म से डर भी गए तो क्या
कर लिया दिन में काम आठ से पाँच