कहीं इंतिहा की मलामतें कहीं पत्थरों से अटी छतें
तिरे शहर में मिरे ब'अद अब कोई सर-फिरा नहीं आएगा
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रहने दे रतजगों में परेशाँ मज़ीद उसे
भूक चेहरों पे लिए चाँद से प्यारे बच्चे
गर्मी लगी तो ख़ुद से अलग हो के सो गए
ख़ोल चेहरों पे चढ़ाने नहीं आते हम को
अन-कही को कही बनाना है
ये दिल जो मुज़्तरिब रहता बहुत है
रात को रोज़ डूब जाता है
हम तुम में कल दूरी भी हो सकती है
मिरी दास्तान-ए-अलम तो सुन कोई ज़लज़ला नहीं आएगा