ख़ोल चेहरों पे चढ़ाने नहीं आते हम को
गाँव के लोग हैं हम शहर में कम आते हैं
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भूक चेहरों पे लिए चाँद से प्यारे बच्चे
ये जो चेहरों पे लिए गर्द-ए-अलम आते हैं
हम तुम में कल दूरी भी हो सकती है
अन-कही को कही बनाना है
दिल कहीं भी नहीं लगता होगा
मेरे अंदर का पाँचवाँ मौसम
हो गया चर्ख़-ए-सितमगर का कलेजा ठंडा
जितना हंगामा ज़ियादा होगा
ये दिल जो मुज़्तरिब रहता बहुत है
कहीं इंतिहा की मलामतें कहीं पत्थरों से अटी छतें
मिरी दास्तान-ए-अलम तो सुन कोई ज़लज़ला नहीं आएगा
दरिया ने कल जो चुप का लिबादा पहन लिया