रात को रोज़ डूब जाता है
चाँद को तैरना सिखाना है
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ये दिल जो मुज़्तरिब रहता बहुत है
हो गया चर्ख़-ए-सितमगर का कलेजा ठंडा
गर्मी लगी तो ख़ुद से अलग हो के सो गए
दिल कहीं भी नहीं लगता होगा
हम तुम में कल दूरी भी हो सकती है
ख़ोल चेहरों पे चढ़ाने नहीं आते हम को
भूक चेहरों पे लिए चाँद से प्यारे बच्चे
रहने दे रतजगों में परेशाँ मज़ीद उसे
ये जो चेहरों पे लिए गर्द-ए-अलम आते हैं
मिरी दास्तान-ए-अलम तो सुन कोई ज़लज़ला नहीं आएगा
कहीं इंतिहा की मलामतें कहीं पत्थरों से अटी छतें