आवाज़ दे रहा था कोई मुझ को ख़्वाब में
लेकिन ख़बर नहीं कि बुलाया कहाँ गया
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कभी भुलाया कभी याद कर लिया उस को
गिर जाए जो दीवार तो मातम नहीं करते
रोज़ आसेब आते जाते हैं
टूटता है तो टूट जाने दो
हर्फ़ अपने ही मआनी की तरह होता है
कभी देखा ही नहीं इस ने परेशाँ मुझ को
हिज्र मौजूद है फ़साने में
मैं ग़ार में था और हवा के बग़ैर था
रख़्त-ए-सफ़र है इस में क़रीना भी चाहिए
किसी ने कैसे ख़ज़ाने में रख लिया है मुझे
तेरी आँखें न रहीं आईना-ख़ाना मिरे दोस्त
जिस्म थकता नहीं चलने से कि वहशत का सफ़र