क्या इल्म कि रोते हों तो मर जाते हों 'फ़ैसल'
वो लोग जो आँखों को कभी नम नहीं करते
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उस को जाने दे अगर जाता है
इन लोगों में रहने से हम बेघर अच्छे थे
गिर जाए जो दीवार तो मातम नहीं करते
ख़ौफ़ ग़र्क़ाब हो गया 'फ़ैसल'
तू ख़्वाब-ए-दिगर है तिरी तदफ़ीन कहाँ हो
आवाज़ दे रहा था कोई मुझ को ख़्वाब में
अदावतों में जो ख़ल्क़-ए-ख़ुदा लगी हुई है
शजर से बिछड़ा हुआ बर्ग-ए-ख़ुश्क हूँ 'फ़ैसल'
जिस्म थकता नहीं चलने से कि वहशत का सफ़र
कभी देखा ही नहीं इस ने परेशाँ मुझ को
हिज्र मौजूद है फ़साने में
मुझ को ये फ़िक्र कब है कि साया कहाँ गया