दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है
लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है
Mohsin Naqvi
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ख़ैर दोज़ख़ में मय मिले न मिले
नहीं शिकायत-ए-हिज्राँ कि इस वसीले से
यास
सफ़र नामा
ब'अद-अज़-वक़्त
हर सम्त परेशाँ तिरी आमद के क़रीने
हमीं से अपनी नवा हम-कलाम होती रही
आरज़ू
नुसख़ा-ए-उल्फ़त मेरा
कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब
खिले जो एक दरीचे में आज हुस्न के फूल
फिर लौटा है ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब सफ़र से