नहीं शिकायत-ए-हिज्राँ कि इस वसीले से
हम उन से रिश्ता-ए-दिल उस्तुवार करते रहे
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आज इक हर्फ़ को फिर ढूँडता फिरता है ख़याल
मिरी जाँ अब भी अपना हुस्न वापस फेर दे मुझ को
फ़रेब-ए-आरज़ू की सहल-अँगारी नहीं जाती
रफ़ीक़-ए-राह थी मंज़िल हर इक तलाश के ब'अद
हम खस्ता-तनों से मुहतसिबो क्या माल-मनाल का पूछते हो
कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल कब रात बसर होगी
ख़ुर्शीद-ए-महशर की लौ
दीदा-ए-तर पे वहाँ कौन नज़र करता है
कुछ पहले इन आँखों आगे क्या क्या न नज़ारा गुज़रे था
ज़ब्त का अहद भी है शौक़ का पैमान भी है
ब-नोक-ए-शमशीर
हर हक़ीक़त मजाज़ हो जाए