रफ़ीक़-ए-राह थी मंज़िल हर इक तलाश के ब'अद
छुटा ये साथ तो रह की तलाश भी न रही
मलूल था दिल-ए-आईना हर ख़राश के ब'अद
जो पाश पाश हुआ इक ख़राश भी न रही
Anwar Masood
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कुछ पहले इन आँखों आगे क्या क्या न नज़ारा गुज़रे था
ब-नोक-ए-शमशीर
ऐ ज़ुल्म के मातो लब खोलो चुप रहने वालो चुप कब तक
दिल में अब यूँ तिरे भूले हुए ग़म आते हैं
तुम ये कहते हो अब कोई चारा नहीं
मैं तेरे सपने देखूँ
गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले
बे-दम हुए बीमार दवा क्यूँ नहीं देते
हम मुसाफ़िर यूँही मसरूफ़-ए-सफ़र जाएँगे
कुत्ते
इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन
जमेगी कैसे बिसात-ए-याराँ कि शीशा ओ जाम बुझ गए हैं