दीदा-ए-तर पे वहाँ कौन नज़र करता है
कासा-ए-चश्म में ख़ूँ-नाब-ए-जिगर ले के चलो
अब अगर जाओ पए-अर्ज़-ओ-तलब उन के हुज़ूर
दस्त-ओ-कश्कोल नहीं कासा-ए-सर ले के चलो
Allama Iqbal
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न गँवाओ नावक-ए-नीम-कश दिल-ए-रेज़ा-रेज़ा गँवा दिया
मौज़ू-ए-सुख़न
ये आरज़ू भी बड़ी चीज़ है मगर हमदम
कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब
वो बुतों ने डाले हैं वसवसे कि दिलों से ख़ौफ़-ए-ख़ुदा गया
अगर शरर है तो भड़के जो फूल है तो खिले
इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन
मंज़र
यहाँ से शहर को देखो
क्या करें
इंतिसाब
क़ंद-ए-दहन कुछ इस से ज़ियादा