खिले जो एक दरीचे में आज हुस्न के फूल
तो सुब्ह झूम के गुलज़ार हो गई यक-सर
जहाँ कहीं भी गिरा नूर उन निगाहों से
हर एक चीज़ तरह-दार हो गई यक-सर
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जब तेरी समुंदर आँखों में
यास
ख़त्म हुई बारिश-ए-संग
ये ख़ूँ की महक है कि लब-ए-यार की ख़ुशबू
जो नफ़स था ख़ार-ए-गुलू बना जो उठे थे हाथ लहू हुए
'सज्जाद-ज़हीर' के नाम
न दीद है न सुख़न अब न हर्फ़ है न पयाम
ख़ुदा वो वक़्त न लाए
आज की रात
कब तक दिल की ख़ैर मनाएँ कब तक रह दिखलाओगे
कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल कब रात बसर होगी
मुलाक़ात