आ गई फ़स्ल-ए-सुकूँ चाक-गरेबाँ वालो
सिल गए होंट कोई ज़ख़्म सिले या न सिले
दोस्तो बज़्म सजाओ कि बहार आ गई है
खिल गए ज़ख़्म कोई फूल खिले या न खिले
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ग़म-ब-दिल शुक्र-ब-लब मस्त ओ ग़ज़ल-ख़्वाँ चलिए
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
तुम ही कहो क्या करना है
नज़्म
अब के बरस दस्तूर-ए-सितम में क्या क्या बाब ईज़ाद हुए
मेजर-इसहाक़ की याद में
हम लोग
इस वक़्त तो यूँ लगता है
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
फ़ज़ा-ए-दिल पे उदासी बिखरती जाती है
तिरी उमीद तिरा इंतिज़ार जब से है
न गुल खिले हैं न उन से मिले न मय पी है