ऐ 'फ़ना' मेरी मय्यत पे कहते हैं वो
आप ने अपना वा'दा वफ़ा कर दिया
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उन के जल्वों पे हमा-वक़्त नज़र होती है
उठा पर्दा तो महशर भी उठेगा दीदा-ए-दिल में
हाँ वही इश्क़-ओ-मोहब्बत की जिला होती है
वो और होंगे जिन को हरम की तलाश है
न दहर में न हरम में जबीं झुकी होगी
आग़ाज़ तो अच्छा था 'फ़ना' दिन भी भले थे
किस तरह छोड़ दूँ ऐ यार मैं चाहत तेरी
तेरे दर से न उठा हूँ न उठूँगा ऐ दोस्त
जो मिटा है तेरे जमाल पर वो हर एक ग़म से गुज़र गया
हरम है क्या चीज़ दैर क्या है किसी पे मेरी नज़र नहीं है
तिरा ग़म रहे सलामत यही मेरी ज़िंदगी है
अँधेरे लाख छा जाएँ उजाला कम नहीं होता