आग़ाज़ तो अच्छा था 'फ़ना' दिन भी भले थे
फिर रास मुझे इश्क़ का अंजाम न आया
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ऐ सनम तुझ को हम भुला न सके
जब तक मिरी निगाह में तेरा जमाल है
निकले वो फूल बन के तिरे गुल्सिताँ से हम
हर घड़ी पेश-ए-नज़र इश्क़ में क्या क्या न रहा
ग़म-ए-दुनिया ग़म-ए-हस्ती ग़म-ए-उल्फ़त ग़म-ए-दिल
अँधेरे लाख छा जाएँ उजाला कम नहीं होता
हाँ वही इश्क़-ओ-मोहब्बत की जिला होती है
वो और होंगे जिन को हरम की तलाश है
इस जहाँ में नहीं कोई अहल-ए-वफ़ा
है वज्ह कोई ख़ास मिरी आँख जो नम है
किस तरह छोड़ दूँ ऐ यार मैं चाहत तेरी
क्या भूल गए हैं वो मुझे पूछना क़ासिद