इस जहाँ में नहीं कोई अहल-ए-वफ़ा
ऐ 'फ़ना' इस जहाँ से किनारा करो
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तुझे ढूँढती हैं नज़रें मुझे इक झलक दिखा जा
मेरे रश्क-ए-क़मर तू ने पहली नज़र जब नज़र से मिलाई मज़ा आ गया
दिल बुतों पे निसार करते हैं
जल्वा जो तिरे रुख़ का एहसास में ढल जाए
मिरे दाग़-ए-दिल वो चराग़ हैं नहीं निस्बतें जिन्हें शाम से
आग़ाज़ तो अच्छा था 'फ़ना' दिन भी भले थे
हुस्न-ए-बुताँ का इश्क़ मेरी जान हो गया
ऐ सनम तुझ को हम भुला न सके
काफ़िर-ए-इश्क़ को क्या से क्या कर दिया
कहीं सुकूँ न मिला दिल को बज़्म-ए-यार के बा'द
हरम है क्या चीज़ दैर क्या है किसी पे मेरी नज़र नहीं है
निकले वो फूल बन के तिरे गुल्सिताँ से हम