सुब्ह होती है तो दफ़्तर में बदल जाता है
ये मकाँ रात को फिर घर में बदल जाता है
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इसी फ़ुतूर में कर्ब-ओ-बला से लिपटे हुए
ऐसी ख़ुशियाँ तो किताबों में मिलेंगी शायद
मैं उस की बातों में ग़म अपना भूल जाता मगर
इस तमाशे का सबब वर्ना कहाँ बाक़ी है
पड़ा था लिखना मुझे ख़ुद ही मर्सिया मेरा
जो दूर रह के उड़ाता रहा मज़ाक़ मिरा
सुराग़ भी न मिले अजनबी सदा के मुझे
मैं जिस में रह न सका जी-हुज़ूरियों के सबब
बंद हो जाता है कूज़े में कभी दरिया भी
मैं अपनी रूह लिए दर-ब-दर भटकता रहा