बंद हो जाता है कूज़े में कभी दरिया भी
और कभी क़तरा समुंदर में बदल जाता है
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सुराग़ भी न मिले अजनबी सदा के मुझे
हम इब्तिदा ही में पहुँचे थे इंतिहा को कभी
इस तमाशे का सबब वर्ना कहाँ बाक़ी है
सबब थी फ़ितरत-ए-इंसाँ ख़राब मौसम का
अदा हुआ न क़र्ज़ और वजूद ख़त्म हो गया
मैं जिस में रह न सका जी-हुज़ूरियों के सबब
सुब्ह होती है तो दफ़्तर में बदल जाता है
मैं अपनी रूह लिए दर-ब-दर भटकता रहा
ऐसी ख़ुशियाँ तो किताबों में मिलेंगी शायद
पड़ा था लिखना मुझे ख़ुद ही मर्सिया मेरा
मैं उस की बातों में ग़म अपना भूल जाता मगर