अदा हुआ न क़र्ज़ और वजूद ख़त्म हो गया
मैं ज़िंदगी का देते देते सूद ख़त्म हो गया
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जो दूर रह के उड़ाता रहा मज़ाक़ मिरा
हम इब्तिदा ही में पहुँचे थे इंतिहा को कभी
सुब्ह होती है तो दफ़्तर में बदल जाता है
पड़ा था लिखना मुझे ख़ुद ही मर्सिया मेरा
बंद हो जाता है कूज़े में कभी दरिया भी
इस तमाशे का सबब वर्ना कहाँ बाक़ी है
सुराग़ भी न मिले अजनबी सदा के मुझे
मैं उस की बातों में ग़म अपना भूल जाता मगर
सबब थी फ़ितरत-ए-इंसाँ ख़राब मौसम का