जो दूर रह के उड़ाता रहा मज़ाक़ मिरा
क़रीब आया तो रोया गले लगा के मुझे
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अदा हुआ न क़र्ज़ और वजूद ख़त्म हो गया
इस तमाशे का सबब वर्ना कहाँ बाक़ी है
इसी फ़ुतूर में कर्ब-ओ-बला से लिपटे हुए
पड़ा था लिखना मुझे ख़ुद ही मर्सिया मेरा
हम इब्तिदा ही में पहुँचे थे इंतिहा को कभी
मैं उस की बातों में ग़म अपना भूल जाता मगर
मैं अपनी रूह लिए दर-ब-दर भटकता रहा
मैं जिस में रह न सका जी-हुज़ूरियों के सबब
सुब्ह होती है तो दफ़्तर में बदल जाता है
सुराग़ भी न मिले अजनबी सदा के मुझे