''अटलांटिक सिटी''

ज़मीन-ए-नूर ओ नग़्मा पर

ख़ुदा-ए-रंग के बिखरे हुए जल्वों को पहचानें

उसे समझें. उसे जानें

यक़ीं आ जाए तो मानें

यहाँ तो कहकशाँ मुट्ठी में है

लाल-ओ-जवाहर पैरहन पर हैं शुआओं के कई धब्बे हर इक उजले बदन पर हैं

यहाँ रंगीं मशीनें दाएरों में झुक के मिलती हैं

किसी से रूठ जाते हैं किसी के साथ चलते हैं

यहाँ के सामरी गोयाई ले लेते हैं

और पलकों पे हैरत के दरीचे खोल देते हैं

यहाँ हर नफ़अ के ख़ाने में पोशीदा ख़सारा है

फ़ुसूँ कम हो तो फिर बाहर का हर मंज़र हमारा है

जिसे हम चाँद समझे हैं भटकता सा सितारा है

यही सूरज से जीता है यही जुगनू से हारा है

ये फ़ितरत का इशारा है

चलो तनवीर-शाह! उट्ठो

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