वो तिफ़्ल-ए-नुसैरी आए शायद
क़स्में दूँ मुर्तज़ा-अली की
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बिजली चमकी तो अब्र रोया
आसमाँ कहते हैं जिस को वो ज़मीन-ए-शेर है
किस क़दर मुझ को ना-तवानी है
उल्फ़त ये छुपाएँ हम किसी की
मिस्ल-ए-तिफ़्लाँ वहशियों से ज़िद है चर्ख़-ए-पीर को
ये इक तेरा जल्वा सनम चार सू है
किस नाज़ से वाह हम को मारा
उस को मुझ से रुठा दिया किस ने
भूला है बा'द-ए-मर्ग मुझे दोस्त याँ तलक
सारे क़ुरआन से उस परी-रू को
अपना हर उज़्व चश्म-ए-बीना है