आसमाँ कहते हैं जिस को वो ज़मीन-ए-शेर है
माह-ए-नौ मिस्रा है वस्फ़-ए-अबरू-ए-ख़मदार में
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सख़्त है हैरत हमें जो ज़ेर-ए-अबरू ख़ाल है
ज़ाहिदो क़ुदरत-ए-ख़ुदा देखो
तुम वफ़ा का एवज़ जफ़ा समझे
गया है कूचा-ए-काकुल में अब दिल
इत्र मिट्टी का लगाया चाहिए पोशाक में
तकल्लुम जो कोई करता है फ़ानी
नासेहा आशिक़ी में रख मा'ज़ूर
खोल दी है ज़ुल्फ़ किस ने फूल से रुख़्सार पर
गर हमारे क़त्ल के मज़मूँ का वो नामा लिखे
सारे क़ुरआन से उस परी-रू को
नज़्ज़ारा-ए-रुख़-ए-साक़ी से मुझ को मस्ती है
लब-ए-जाँ-बख़्श पे दम अपना फ़ना होता है