इत्र मिट्टी का लगाया चाहिए पोशाक में
ख़ाक से रग़बत रहे मिलना है इक दिन ख़ाक में
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जामा-ए-सुर्ख़ तिरा देख के गुल
उल्फ़त ये छुपाएँ हम किसी की
ख़ून मिरा कर के लगाना न हिना मेरे ब'अद
गया है कूचा-ए-काकुल में अब दिल
लब-ए-जाँ-बख़्श पे दम अपना फ़ना होता है
हाथ से कुछ न तिरे ऐ मह-ए-कनआँ होगा
किस नाज़ से वाह हम को मारा
ऐ जुनूँ हाथ जो वो ज़ुल्फ़ न आई होती
ज़ाहिदो क़ुदरत-ए-ख़ुदा देखो
खोल दी है ज़ुल्फ़ किस ने फूल से रुख़्सार पर
नज़्ज़ारा-ए-रुख़-ए-साक़ी से मुझ को मस्ती है