ख़ून मिरा कर के लगाना न हिना मेरे ब'अद
दस्त रंगीं न हों अंगुश्त-नुमा मेरे ब'अद
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ज़ोफ़ से रहता है अब पाँव पे सर
बिजली चमकी तो अब्र रोया
दिमाग़ और ही पाती हैं इन हसीनों में
उस को मुझ से रुठा दिया किस ने
तकल्लुम जो कोई करता है फ़ानी
न मर के भी तिरी सूरत को देखने दूँगा
इत्र मिट्टी का लगाया चाहिए पोशाक में
गया है कूचा-ए-काकुल में अब दिल
क्या हैं शैदा-ए-क़द्द-ए-यार दरख़्त
ज़ाहिदो क़ुदरत-ए-ख़ुदा देखो
क्यूँकर न ख़ुश हो सर मिरा लटक्का के दार में
मुँह ढाँप के मैं जो रो रहा हूँ