दिमाग़ और ही पाती हैं इन हसीनों में
ये माह वो हैं नज़र आएँ जो महीनों में
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क़त्ल उश्शाक़ किया करते हैं
न मर के भी तिरी सूरत को देखने दूँगा
मिस्ल-ए-तिफ़्लाँ वहशियों से ज़िद है चर्ख़-ए-पीर को
उल्फ़त ये छुपाएँ हम किसी की
गया है कूचा-ए-काकुल में अब दिल
हसरत ऐ जाँ शब-ए-जुदाई है
ये इक तेरा जल्वा सनम चार सू है
क्यूँकर न ख़ुश हो सर मिरा लटक्का के दार में
हर गाम पे ही साए से इक मिस्रा-ए-मौज़ूँ
किस नाज़ से वाह हम को मारा
नक़्श-ए-पा पंच-शाख़ा क़बर पर रौशन करो