गया है कूचा-ए-काकुल में अब दिल
मुसलमाँ वारिद-ए-हिन्दोस्ताँ है
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क्यूँकर न ख़ुश हो सर मिरा लटक्का के दार में
तकल्लुम जो कोई करता है फ़ानी
गर हमारे क़त्ल के मज़मूँ का वो नामा लिखे
ऐ जुनूँ हाथ जो वो ज़ुल्फ़ न आई होती
ये इक तेरा जल्वा सनम चार सू है
वो तिफ़्ल-ए-नुसैरी आए शायद
हसरत ऐ जाँ शब-ए-जुदाई है
क़त्ल उश्शाक़ किया करते हैं
न होगा कोई मुझ सा महव-ए-तसव्वुर
अपने सिवा नहीं है कोई अपना आश्ना
दर पे नालाँ जो हूँ तो कहता है
ज़ोफ़ से रहता है अब पाँव पे सर