अपने सिवा नहीं है कोई अपना आश्ना
दरिया की तरह आप हैं अपने कनार में
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अपना हर उज़्व चश्म-ए-बीना है
आसमाँ कहते हैं जिस को वो ज़मीन-ए-शेर है
क्या हैं शैदा-ए-क़द्द-ए-यार दरख़्त
किस नाज़ से वाह हम को मारा
हाथ से कुछ न तिरे ऐ मह-ए-कनआँ होगा
बिजली चमकी तो अब्र रोया
क़त्ल उश्शाक़ किया करते हैं
मुँह ढाँप के मैं जो रो रहा हूँ
जामा-ए-सुर्ख़ तिरा देख के गुल
इत्र मिट्टी का लगाया चाहिए पोशाक में
दिमाग़ और ही पाती हैं इन हसीनों में
क्यूँकर न ख़ुश हो सर मिरा लटक्का के दार में