जामा-ए-सुर्ख़ तिरा देख के गुल
पैरहन अपना क़बा करते हैं
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हसरत ऐ जाँ शब-ए-जुदाई है
जो पिन्हाँ था वही हर सू अयाँ है
ख़ून मिरा कर के लगाना न हिना मेरे ब'अद
ठुकरा के चले जबीं को मेरी
हर गाम पे ही साए से इक मिस्रा-ए-मौज़ूँ
गया है कूचा-ए-काकुल में अब दिल
दिमाग़ और ही पाती हैं इन हसीनों में
किस क़दर मुझ को ना-तवानी है
वो तिफ़्ल-ए-नुसैरी आए शायद
नहीं बचता है बीमार-ए-मोहब्बत
ये इक तेरा जल्वा सनम चार सू है