तन्हाई-ए-फ़िराक़ में उम्मीद बार-हा
गुम हो गई सुकूत के हंगामा-ज़ार में
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क्यूँ हिज्र के शिकवे करता है क्यूँ दर्द के रोने रोता है
फिर लुत्फ़-ए-ख़लिश देने लगी याद किसी की
मुझे तो इस ख़बर ने खो दिया है
बुत कहते हैं मर जा मर जा
अहबाब का शिकवा क्या कीजिए ख़ुद ज़ाहिर ओ बातिन एक नहीं
वो क़ाफ़िला आराम-तलब हो भी तो क्या हो
कम-बख़्त दिल बुरा हुआ तिरी आह आह का
ओ दिल तोड़ के जाने वाले दिल की बात बताता जा
जहाँ क़तरे को तरसाया गया हूँ
इश्क़ ने अक़्ल को दीवाना बना रक्खा है
किस मुँह से कह रहे हो हमें कुछ ग़रज़ नहीं
उस शोख़ ने निगाह न की हम भी चुप रहे