सुपुर्द-ए-ख़ाक ही करना था मुझ को
तो फिर काहे को नहलाया गया हूँ
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इश्क़ के हाथों ये सारी आलम-आराई हुई
दिन की सूरत नज़र आते ही मिरी रात हुई
चले थे हम कि सैर-ए-गुलशन-ए-ईजाद करते हैं
इलाही एक ग़म-ए-रोज़गार क्या कम था
आशिक़ सा बद-नसीब कोई दूसरा न हो
हाँ कैफ़-ए-बे-ख़ुदी की वो साअत भी याद है
हयात-ए-जावेदाँ वाले ने मारा
ऐ मिरी जान अपने जी के सिवा
या ख़ादिम-ए-दीं होना या मज़हर-ए-दीं होना
नासेह को बुलाओ मिरा ईमान सँभाले
मुझ से क्या हो सका वफ़ा के सिवा
हम ही में थी न कोई बात याद न तुम को आ सके