नासेह को बुलाओ मिरा ईमान सँभाले
फिर देख लिया उस ने उसी एक नज़र से
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जल्वा-ए-हुस्न को महरूम-ए-तमाशाई कर
वो सरख़ुशी दे कि ज़िंदगी को शबाब से बहर-याब कर दे
अब ख़ूब हँसेगा दीवाना
कभी ज़मीं पे कभी आसमाँ पे छाए जा
वो क़ाफ़िला आराम-तलब हो भी तो क्या हो
इन तल्ख़ आँसुओं को न यूँ मुँह बना के पी
दोस्ती का चलन रहा ही नहीं
आँख कम-बख़्त से उस बज़्म में आँसू न रुका
आ ही गया वो मुझ को लहद में उतारने
निगाह-ए-आरज़ू-आमोज़ का चर्चा न हो जाए
दिल सभी कुछ ज़बान पर लाया
दिल-ए-बे-मुद्दआ है और मैं हूँ