नासेह को बुलाओ मिरा ईमान सँभाले
फिर देख लिया उस ने शरारत की नज़र से
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वफ़ादारियाँ सख़्त नादानियाँ हैं
सख़्त-गीर आक़ा
इन गेसुओं में शाना-ए-अरमाँ न कीजिए
मैं वो बस्ती हूँ कि याद-ए-रफ़्तगाँ के भेस में
मेरे आक़ा तुझे बंदे का ख़याल आ ही गया
हैरान हो के मुँह मिरा तकते हैं बार बार
आँख कम-बख़्त से उस बज़्म में आँसू न रुका
ज़िंदगी फ़िरदौस-ए-गुम-गश्ता को पा सकती नहीं
'हफ़ीज़' अहल-ए-ज़बाँ कब मानते थे
वफ़ा जिस से की बेवफ़ा हो गया
बात भी जिस से अब नहीं मुमकिन
फिर लुत्फ़-ए-ख़लिश देने लगी याद किसी की